जब वो नज़रें दो-चार होती हैं
तीर सी दिल के पार होती हैं
रंजिशें मेरी और उस गुल की
रात दिन में हज़ार होती हैं
इश्क़ में बे-हिजाबियाँ दिल को
क्या ही बे-इख़्तियार होती हैं
तू जो जाता है बाग़ में ऐ गुल
बुलबुलें सब निसार होती हैं
क़ुमरियाँ बंदगी में तुझ क़द की
सर-ब-सर तौक़-ए-दार होती हैं
'आफ़्ताब' उस के वस्ल की बातें
बाइस-ए-इज़्तिरार होती हैं
ग़ज़ल
जब वो नज़रें दो-चार होती हैं
आफ़ताब शाह आलम सानी