EN اردو
जब वो नज़रें दो-चार होती हैं | शाही शायरी
jab wo nazren do-chaar hoti hain

ग़ज़ल

जब वो नज़रें दो-चार होती हैं

आफ़ताब शाह आलम सानी

;

जब वो नज़रें दो-चार होती हैं
तीर सी दिल के पार होती हैं

रंजिशें मेरी और उस गुल की
रात दिन में हज़ार होती हैं

इश्क़ में बे-हिजाबियाँ दिल को
क्या ही बे-इख़्तियार होती हैं

तू जो जाता है बाग़ में ऐ गुल
बुलबुलें सब निसार होती हैं

क़ुमरियाँ बंदगी में तुझ क़द की
सर-ब-सर तौक़-ए-दार होती हैं

'आफ़्ताब' उस के वस्ल की बातें
बाइस-ए-इज़्तिरार होती हैं