जब वो ना-मेहरबाँ नहीं होता
आसमाँ आसमाँ नहीं होता
हम ज़माने से क्या उमीद करें
तू ही जब मेहरबाँ नहीं होता
कहाँ आराम ढूँडने जाएँ
किस जगह आसमाँ नहीं होता
मेरी नज़रों से दूर रह कर भी
वो नज़र से निहाँ नहीं होता
उज़्र अब क्यूँ है मुझ से मिलने में
मैं तिरे दरमियाँ नहीं होता
उस को नज़रें बयान करती हैं
जो ज़बाँ से बयाँ नहीं होता
दर्द का क्या सुबूत पेश करूँ
उस का कोई निशाँ नहीं होता
दैर-ओ-काबा में ढूँडने वालो
उस का जल्वा कहाँ नहीं होता
लाख आराम हों क़फ़स में मगर
फिर भी वो आशियाँ नहीं होता
इम्तिहान-ए-वफ़ा से बढ़ के 'जिगर'
कोई भी इम्तिहाँ नहीं होता
ग़ज़ल
जब वो ना-मेहरबाँ नहीं होता
जिगर जालंधरी