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जब उठे तेरे आस्ताने से | शाही शायरी
jab uThe tere aastane se

ग़ज़ल

जब उठे तेरे आस्ताने से

रज़ा अज़ीमाबादी

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जब उठे तेरे आस्ताने से
जानियो उठ गए ज़माने से

दिन भला इंतिज़ार में गुज़रा
रात काटेंगे किस बहाने से

जान भी कुछ है जो न कीजे निसार
मर न जाएँगे उस के जाने से

एक उस ज़ुल्फ़ से उठाया हाथ
छट गए लाखों शाख़साने से

कोई मर जाओ काम है उस को
अपनी तरवार आज़माने से

उस के तीर-ए-निगाह के आगे
कुछ हमीं बन गए निशाने से

ना-तवानी तुझे ग़ज़ब आए
गए उस की गली के जाने से

कहाँ बंगाला और कहाँ मैं 'रज़ा'
बस नहीं चलता आब-ओ-दाने से