जब उस ने आने का इक दिन इधर इरादा किया
तो मैं ने दिल का मकाँ और भी कुशादा किया
मिरे मिज़ाज से मिलता नहीं था मेरा लिबास
तो तार तार यही सोच कर लिबादा किया
न था जो जीत का इम्काँ तो सुल्ह कर ली है
यूँ पिछली हार से इस बार इस्तिफ़ादा किया
वो एक शख़्स जो मुझ से गुरेज़-पा है बहुत
गुमाँ है प्यार भी मुझ से उसी ने ज़्यादा किया
अजब कि अर्ज़-ए-तमन्ना के पेच-ओ-ख़म न खुले
'शहाब' हुस्न-ए-तलब को हज़ार सादा किया
ग़ज़ल
जब उस ने आने का इक दिन इधर इरादा किया
मुस्तफ़ा शहाब