जब उस की ज़ुल्फ़ के हल्क़े में हम असीर हुए
शिकन के आदी हुए ख़म के ख़ू-पज़ीर हुए
ख़दंग-वार जो ग़म्ज़े थे उस के छुटपन में
पर अब नज़र में जो आए तो रश्क-ए-तीर हुए
झिड़क दिया हमें कूचे में उस ने हर-दम देख
हम अपने दिल में कुछ उस दम ख़जिल कसीर हुए
जो गाह गाह अधर जाते हम तो रहती क़द्र
घड़ी घड़ी जो गए इस सबब हक़ीर हुए
निगह के लड़ते ही हँस कर कहा 'नज़ीर' उस ने
ये बातें छोड़ दो कुछ समझो अब तो पीर हुए
ग़ज़ल
जब उस की ज़ुल्फ़ के हल्क़े में हम असीर हुए
नज़ीर अकबराबादी