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जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना | शाही शायरी
jab unhi ko na suna pae gham-e-jaan apna

ग़ज़ल

जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना

ज़िया जालंधरी

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जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना
चुप लगी ऐसी कि ख़ुद हो गए ज़िंदाँ अपना

ना-रसाई का बयाबाँ है कि इरफ़ाँ अपना
इस जगह अहरमन अपना है न यज़्दाँ अपना

दम की मोहलत में है तस्ख़ीर-ए-मह-ओ-मेहर की धुन
साँस इक सिलसिला-ए-ख़्वाब-ए-दरख़्शाँ अपना

तलब उस की है कि जो सरहद-ए-इम्काँ में नहीं
मेरी हर राह में हाइल है बयाबाँ अपना

कैसी दूरी उसी शोले की है ज़ौ मेरा जमाल
जिस से ताबिंदा रहा दीदा-ए-गिर्यां अपना

अर्मुग़ाँ हैं तिरी चाहत के शगुफ़्ता लम्हे
बे-ख़ुदी अपनी शब अपनी मह-ए-ताबाँ अपना

इस तरह अक्स पड़ा तेरे शफ़क़ होंटों का
सुब्ह-ए-गुलज़ार हुआ सीना-ए-वीराँ अपना

ऐसी घड़ियाँ कई मुझ ऐसों पे आई होंगी
वक़्त ने जिन से सजा रक्खा है ऐवाँ अपना