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जब तिरे ख़्वाब से बेदार हुआ करते थे | शाही शायरी
jab tere KHwab se bedar hua karte the

ग़ज़ल

जब तिरे ख़्वाब से बेदार हुआ करते थे

अज़हर अब्बास

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जब तिरे ख़्वाब से बेदार हुआ करते थे
हम किसी रंज से दो-चार हुआ करते थे

आइने चश्म-ए-तहय्युर से हमें देखते थे
हम कि जब तेरे गिरफ़्तार हुआ करते थे

आज मालूम हुआ तेरी ज़रूरत ही न थी
हम यूँही तेरे तलबगार हुआ करते थे

अब तो हम रोज़ उन्हें पाँव तले रौंदते हैं
ये ही रस्ते थे जो दुश्वार हुआ करते थे

दौलत-ए-इश्क़ से हम काम चलाते थे मियाँ
बस यही दिरहम-ओ-दीनार हुआ करते थे

बारहा यूँ भी हुआ डूबे हुए ख़्वाब मिरे
उस की आँखों से नुमूदार हुआ करते थे

आप ही आप कहानी से निकलते जाते
जो मिरे जैसे अदाकार हुआ करते थे

लो कि हम बोझ उठाते हैं ज़मीं से अपना
हम कभी इस पे बहुत बार हुआ करते थे

आज जो लोग ख़रीदार हैं तेरे 'अज़हर'
कल यही मेरे ख़रीदार हुआ करते थे