जब तन न रहा मेरा हों वासिल-ए-जानाना
दीवार के गिरने से हम-साया हो हम-ख़ाना
आईने में देख आ कर मुँह अपना ऐ जानाना
ता-क़द्र मिरी जाने काश अपना हो दीवाना
उस ज़ुल्फ़ में कई दिन से बेताबी-ए-दिल गुम है
ज़ंजीर झनकती नहीं क्या मर चुका दीवाना
बिजली मिरे नाले की जों चमके तो मूँदे आँख
ऐ आश्ना आगे तू इतना न था बेगाना
दिल शर्म-ए-मोहब्बत से तर है तो न फेर आँखें
क्यूँ कर पिसे चक्की में भीगा हुआ है दाना
'उज़लत' गया आँखों से इस वास्ते जी उस का
है शम्अ' की चश्म-ए-तर तुर्बत-गह-ए-परवाना

ग़ज़ल
जब तन न रहा मेरा हों वासिल-ए-जानाना
वली उज़लत