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जब तलक रौशनी-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र बाक़ी है | शाही शायरी
jab talak raushni-e-fikr-o-nazar baqi hai

ग़ज़ल

जब तलक रौशनी-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र बाक़ी है

सुरूर बाराबंकवी

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जब तलक रौशनी-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र बाक़ी है
तीरगी लाख हो इमकान-ए-सहर बाक़ी है

किस के जल्वों का ये आँखों में असर बाक़ी है
हुस्न बाक़ी है न अब हुस्न-ए-नज़र बाक़ी है

ये भी इक मो'जिज़ा-ए-जोश-ए-जुनूँ है कि नहीं
पा-शिकस्ता हूँ मगर अज़्म-ए-सफ़र बाक़ी है

ये भी किया नज़्म-ए-जहाँ है कि अज़ल से अब तक
बस वही सिलसिला-ए-शाम-ओ-सहर बाक़ी है

आज यूँ आबला-पायान-ए-जुनूँ गुज़रे हैं
इक चराग़ाँ सा सर-ए-राह-गुज़र बाक़ी है

मैं ख़िज़ाँ-दीदा-ओ-आवारा सही फिर भी 'सुरूर'
मेरे नग़्मों में बहारों का असर बाक़ी है