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जब तक वो शो'ला-रू मिरे पेश-ए-नज़र न था | शाही शायरी
jab tak wo shoala-ru mere pesh-e-nazar na tha

ग़ज़ल

जब तक वो शो'ला-रू मिरे पेश-ए-नज़र न था

असद जाफ़री

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जब तक वो शो'ला-रू मिरे पेश-ए-नज़र न था
मैं आश्ना-ए-लज़्ज़त सोज़-ए-जिगर न था

एज़ाज़-रंग-ओ-बू से नवाज़ा गया उसे
जिस गुल के सर पे साया-ए-शाख़-ए-शजर न था

अफ़्सोस आप से न हुआ अज़्म-ए-इल्तिफ़ात
वर्ना मिरा पहाड़ की चोटी पे घर न था

जो आसमाँ की झील में चमका तमाम रात
वो तेरा अक्स-ए-नक़्श-ए-क़दम था क़मर न था

शबनम से तर था मेरे सिरहाने का सुर्ख़ फूल
लेकिन अभी तो रात का पिछ्ला पहर न था

गुज़री है यूँ उठाए हुए ज़िंदगी का बोझ
जैसे मैं कोई पुल का सुतूँ था बशर न था