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जब तक खुली नहीं थी असरार लग रही थी | शाही शायरी
jab tak khuli nahin thi asrar lag rahi thi

ग़ज़ल

जब तक खुली नहीं थी असरार लग रही थी

आलम ख़ुर्शीद

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जब तक खुली नहीं थी असरार लग रही थी
ये ज़िंदगी मुझे भी दुश्वार लग रही थी

मुझ पर झुकी हुई थी फूलों की एक डाली
लेकिन वो मेरे सर पर तलवार लग रही थी

छूते ही जाने कैसे क़दमों में आ गिरी वो
जो फ़ासले से ऊँची दीवार लग रही थी

शहरों में आ के कैसे आहिस्ता-रौ हुआ मैं
सहरा में तेज़ अपनी रफ़्तार लग रही थी

लहरों के जागने पर कुछ भी न काम आई
क्या चीज़ थी जो मुझ को पतवार लग रही थी

अब कितनी कार-आमद जंगल में लग रही है
वो रौशनी जो घर में बेकार लग रही थी

टूटा हुआ है शायद वो भी हमारे जैसा
आवाज़ उस की जैसे झंकार लग रही थी

'आलम' ग़ज़ल में ढल कर क्या ख़ूब लग रही है
जो टीस मेरे दिल का आज़ार लग रही थी