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जब तक ग़म-ए-उल्फ़त का उंसुर न मिला होगा | शाही शायरी
jab tak gham-e-ulfat ka unsur na mila hoga

ग़ज़ल

जब तक ग़म-ए-उल्फ़त का उंसुर न मिला होगा

सीमाब अकबराबादी

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जब तक ग़म-ए-उल्फ़त का उंसुर न मिला होगा
इंसान के पहलू में दिल बन न सका होगा

मैं और तिरा सौदा तू और ये इस्तिग़्ना
शायद मुझे फ़ितरत ने मजबूर किया होगा

इक दायरा ज़र्रों का ख़ुर्शीद-ए-तरीक़त था
शायद वो तुम्हारा ही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होगा

तुम दर्द के ख़ालिक़ हो मैं दर्द का बंदा हूँ
जब नाम लिया होगा दिल थाम लिया होगा

'सीमाब' जब इस दिल में तस्वीर नहीं उन की
ये आईना धुँदला है ये आईना क्या होगा