जब शाख़-ए-गुल चटख़ के गिरी राज़ की तरह
ख़ुशबू का दिल लरज़ उठा आवाज़ की तरह
वो धूल जिस को दी न किसी शहर ने अमाँ
लिपटी हुई है पाँव से दम-साज़ की तरह
इतना हवास-गीर था सूरज का इज़्तिराब
मंज़र बदल गए तिरे अंदाज़ की तरह
पाँव तले ज़मीं नहीं लेकिन ख़लाओं से
रिश्ता मिला रहा हूँ रग-ए-साज़ की तरह
इस मुंजमिद सुकूत में 'ख़ालिद' मिरी सदा
पथरा गई है हसरत-ए-परवाज़ की तरह

ग़ज़ल
जब शाख़-ए-गुल चटख़ के गिरी राज़ की तरह
ख़ालिद शिराज़ी