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जब से उम्मीद बाँधी पत्थर पर | शाही शायरी
jab se ummid bandhi patthar par

ग़ज़ल

जब से उम्मीद बाँधी पत्थर पर

नबील अहमद नबील

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जब से उम्मीद बाँधी पत्थर पर
धूल सी जम गई मुक़द्दर पर

किस ने चादर धुएँ की तानी है
मेरे जन्नत-मिसाल मंज़र पर

मेरे चारागरों ने रक्खा है
एक इक रास्ते को ठोकर पर

आसमाँ की तलब में कट कर भी
फड़फड़ाते रहे बराबर पर

पास तीर-ओ-कमाँ के होते हुए
ख़ौफ़ तारी है मेरे लश्कर पर

जब घड़ी इम्तिहान की आई
मैं ने रख दी ज़बाँ अख़गर पर

क़ैद कमरे में हो गया हूँ 'नबील'
फेंक कर मैं गली से बाहर पर