जब से सुना दहन तिरे ऐ माह-रू नहीं
सब चुप हैं अब किसी की कोई गुफ़्तुगू नहीं
निकले जो क़ल्ब से वो मिरी आरज़ू नहीं
तू मिल ही जाए गर तो मैं समझूँ कि तू नहीं
आँखें लड़ा रहे हो सर-ए-बज़्म ग़ैर से
और मुझ से ये बयान कि हम जंग-जू नहीं
पैदा हुआ है एक की ज़िद एक ख़ल्क़ में
इज़्ज़त है ग़ैर की तू मिरी आबरू नहीं
टाँके न खाएँ ज़ख़्मी-ए-तेग़-ए-निगाह-ए-नाज़
कहने को हो कि जामा-ए-तन में रफ़ू नहीं
मा'शूक़ कौन सा है न हो दिल में जिस की याद
इस मुख़्तसर से बाग़ में किस गुल की बू नहीं
ये हाल तेरी वा'दा-ख़िलाफ़ी से हो गया
अब तो क़सम भी खाने को मुझ में लहू नहीं
पीरी है आशिक़ी का मज़ा जा चुका 'रशीद'
वो हम नहीं वो दिल नहीं वो आरज़ू नहीं
ग़ज़ल
जब से सुना दहन तिरे ऐ माह-रू नहीं
रशीद लखनवी