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जब से दिल में तिरे बख़्शे हुए ग़म ठहरे हैं | शाही शायरी
jab se dil mein tere baKHshe hue gham Thahre hain

ग़ज़ल

जब से दिल में तिरे बख़्शे हुए ग़म ठहरे हैं

रईस रामपुरी

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जब से दिल में तिरे बख़्शे हुए ग़म ठहरे हैं
महरम और भी अपने लिए हम ठहरे हैं

ग़म कि हर दौर में ठहराए गए हासिल-ए-ज़ीस्त
और इस दौर में हम साहब-ए-ग़म ठहरे हैं

हम तिरी राह में उट्ठे हैं बड़े अज़्म के साथ
गर्दिश-ए-दहर भी ठहरी है जो हम ठहरे हैं

शौक़-ए-आवारगी-ओ-ज़ौक़ तलब के क़ुर्बां
उठ गए हैं तो कहाँ अपने क़दम ठहरे हैं

मैं तसव्वुर से कभी जिन के लरज़ उठता था
वही हालात मोहब्बत का भरम ठहरे हैं

मग़्फ़िरत ही सही मय-ख़ाना-ओ-मय के मा'नी
कि यहाँ आज सफ़ीरान-ए-हरम ठहरे हैं

सिर्फ़ आँखों ही में कम रुक न सके मेरी 'रईस'
मेरे आँसू किसी दामन में भी कम ठहरे हैं