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जब क़ौम पर आफ़त आई हो जब मुल्क पड़ा हो मुश्किल में | शाही शायरी
jab qaum par aafat aai ho jab mulk paDa ho mushkil mein

ग़ज़ल

जब क़ौम पर आफ़त आई हो जब मुल्क पड़ा हो मुश्किल में

जैमिनी सरशार

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जब क़ौम पर आफ़त आई हो जब मुल्क पड़ा हो मुश्किल में
इंसान वो क्या मर मिटने का एहसास न हो जिस के दिल में

हँसने का तरीक़ा पैदा कर रोने का सलीक़ा पैदा कर
हँस फूल की सूरत गुलशन में रो शम्अ की सूरत महफ़िल में

क़ातिल के दिल की कमज़ोरी ने सारा काम बिगाड़ दिया
हम तिश्ना-ए-शौक़-ए-शहादत थे ख़ंजर भी था दस्त-ए-क़ातिल में

महफ़िल की महफ़िल बेहिस है तारी है जुमूद इंसानों पर
उठ सोज़ का आलम बरपा कर और आग लगा दे हर दिल में

हर क़तरा दरिया बनने को बेताब दिखाई देता है
हर मौज-ए-रवाँ बेचैन नज़र आती है फ़िराक़-ए-साहिल में

'सरशार' वो क्यूँकर कहते हैं हम क़ौम ओ वतन के ख़ादिम हैं
डाले न गए जो ज़िंदाँ में जकड़े न गए जो सलासिल में