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जब पलक झपके तो मंज़र का वरक़ बन जाए है | शाही शायरी
jab palak jhapke to manzar ka waraq ban jae hai

ग़ज़ल

जब पलक झपके तो मंज़र का वरक़ बन जाए है

माजिद-अल-बाक़री

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जब पलक झपके तो मंज़र का वरक़ बन जाए है
दिल में कुछ आए नज़र बाहर नज़र कुछ आए है

चुप का सीधा पेड़ है बोलो तो झुकता जाए है
हाए छूने की तमन्ना जो मुझे तड़पाए है

सर्दियों की लम्बी रातें ओढ़ कर सो जाए है
दिन के सूरज के ख़यालों ही से दिल गरमाए है

याद की ख़ुशबू से अपने जिस्म को महकाए है
वो परी-पैकर जो मेरे नाम से शरमाए है

हर घड़ी हर आन बिजली की तरह लहराए है
मेरी कच्ची कोठरी में झाँक कर रह जाए है

ज़ात के ग़ारों में छुप कर ही कोई बहलाए है
रौशनी में जिस्म की ख़्वाहिश मुझे ले आए है

चूड़ियों की बंसरी पर राग 'माजिद' गाए है
घुप अँधेरे में सदा उस की बदन बन जाए है