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जब पाँव मिला था तो रस्ते भी नज़र आते | शाही शायरी
jab panw mila tha to raste bhi nazar aate

ग़ज़ल

जब पाँव मिला था तो रस्ते भी नज़र आते

जमील मज़हरी

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जब पाँव मिला था तो रस्ते भी नज़र आते
तुम तक न सही लेकिन ता-हद्द-ए-नज़र जाते

तुम आँख नहीं रखते और देखते हो सब कुछ
हम आँख भी रखते हैं और देख नहीं पाते

हर राह तो मंज़िल तक ले जाती नहीं सब को
कुछ देर इधर चलते कुछ देर उधर जाते

पर्दा वो उठाया तो पर्दा ही नज़र आया
जब कुछ न नज़र आया तो क्यूँ न ठहर जाते

ये इश्क़ नहीं ये है कम-बीनी ओ कम-अक़ली
इक लुत्फ़-ए-तबस्सुम पर इतना नहीं इतराते

जो हो न 'जमील' अपना औरों का वो क्या होगा
क्या खाओगे ग़म मेरा तुम अपना ही ग़म खाते