जब ओस बूँद बूँद गिरी साएबान से
ख़ुश्बू सी इक उड़ी मिरे कच्चे मकान से
तू साहिलों पे जिस का निशाँ ढूँढता फिरा
रिश्ता तो उस ने जोड़ लिया बादबान से
ना-क़द्री-ए-हुनर की मुझे ताब ही न थी
मैं ने ख़ुद अपनी जिंस उठा ली दुकान से
थी उस की ही लहू की सदा जो पलट गई
उस ने तो झाँक कर भी न देखा मकान से
बिखरी हुई थीं चारों तरफ़ ना-रसाइयाँ
वो पाटने चला था ख़ला को उड़ान से
क्या क्या हुईं क़ुबूल दुआएँ उस एक शब
फिर एक फूल भी न गिरा आसमान से
गर्मी में टिन की छत ने जलाया कुछ और भी
जाड़े में बर्फ़ सर पे गिरी साएबान से
रेज़ों में बट गया हूँ मैं 'शाहीन' हर तरफ़
पहचान ले मुझे मिरे बिखरे निशान से
ग़ज़ल
जब ओस बूँद बूँद गिरी साएबान से
वली आलम शाहीन