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जब मिरे शहर की हर शाम ने देखा उस को | शाही शायरी
jab mere shahr ki har sham ne dekha usko

ग़ज़ल

जब मिरे शहर की हर शाम ने देखा उस को

अम्बरीन सलाहुद्दीन

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जब मिरे शहर की हर शाम ने देखा उस को
क्यूँ न फिर मेरे दर-ओ-बाम ने देखा उस को

हर्फ़-दर-हर्फ़ मिरे दिल में उतर आया है
मुझ से पहले मिरे इल्हाम ने देखा उस को

मेरी आँखों ने तो इक बार ही मंज़र देखा
फिर हर इक लम्हा-ए-दुश्नाम ने देखा उस को

दिन ढले ख़्वाब दरीचे में उतर आता है
जब भी देखा है यहाँ शाम ने देखा उस को

जाने किस ख़्वाब की हैरत ने जगाए रक्खा
फिर मिरी हसरत-ए-नाकाम ने देखा उस को