जब मिली उन से नज़र मिटने का सामाँ हो गया
ऐ क़ज़ा ख़ुश हो तिरा अब काम आसाँ हो गया
दिलरुबा मा'लूम होती हैं मुझे तन्हाइयाँ
नक़्श हर शय का मुझे तस्वीर-ए-जानाँ हो गया
मेरी ख़्वाहिश थी कि लूटूँ लज़्ज़त-ए-दुनिया मगर
वुसअत-ए-हिर्स-ओ-हवा से तंग दामाँ हो गया
बढ़ रही हैं क़ीमतें हर चीज़ की बाज़ार में
एक ऐसा ग़म है जो अब और अर्ज़ां हो गया
शोमी-ए-क़िस्मत कहें या ख़सलत-ए-इंसाँ इसे
आ के क़ाबिज़ बज़्म-ए-हस्ती पर ये मेहमाँ हो गया
शो'ला-ज़न है दिल यहाँ तो दाग़-हा-ए-रंज से
और वो कहते हैं ख़ुश हो कर चराग़ाँ हो गया
देख कर चारों तरफ़ आसार-ए-ग़म आह-ओ-फ़ुग़ाँ
क्या करूँ 'मग़मूम' दिल मेरा हिरासाँ हो गया
ग़ज़ल
जब मिली उन से नज़र मिटने का सामाँ हो गया
गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम