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जब मैं ने कहा ऐ बुत-ए-ख़ुद-काम वरे आ | शाही शायरी
jab maine kaha ai but-e-KHud-kaam ware aa

ग़ज़ल

जब मैं ने कहा ऐ बुत-ए-ख़ुद-काम वरे आ

जुरअत क़लंदर बख़्श

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जब मैं ने कहा ऐ बुत-ए-ख़ुद-काम वरे आ
तब कहने लगा ''चल बे ओ बद-नाम परे जा''

है सुब्ह से आशिक़ का तिरे हाल निपट तंग
मालूम ये होता है कि ता-शाम मरेगा

नासेह मिरे रोने का न माने हो कि आशिक़
गर ये न करे काम तो फिर काम करे क्या

आता है गर इस अब्र में ऐ साक़ी-ए-गुलफ़ाम
तो बादा-ए-गुल-रंग से तू जाम भरे ला

याँ ज़ीस्त का ख़तरा नहीं हाँ खींचिए तलवार
वो ग़ैर था जो देख के समसाम डरे था

मैं ने जो कहा एक तो बोसा तू मुझे दे
बोला वो ''ज़बाँ अपनी को तू थाम अरे हा!''

गर दीदा-ओ-दिल फ़र्श करूँ राह में 'जुरअत'
मुमकिन ही नहीं जो वो दिल-आराम धरे पा