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जब कोई रास्ता नहीं होता | शाही शायरी
jab koi rasta nahin hota

ग़ज़ल

जब कोई रास्ता नहीं होता

अमर सिंह फ़िगार

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जब कोई रास्ता नहीं होता
कौन महव-ए-दुआ नहीं होता

लोग ज़ुल्मत से यूँ ही नालाँ हैं
रोज़-ए-रौशन में क्या नहीं होता

टूटे तारों को छू के देखा है
साज़-ए-दिल बे-सदा नहीं होता

हर ख़ुशी दिल से क्यूँ लगा बैठें
किस में ग़म हो पता नहीं होता

आओ मिल बैठ लो घड़ी-दो-घड़ी
उस घड़ी का पता नहीं होता

सर्द-मेहरी हमारी आदत है
वर्ना ज़र्रे में क्या नहीं होता

फिर वही शब वही तवील सफ़र
ख़त्म ये सिलसिला नहीं होता