जब कोई रास्ता नहीं होता
कौन महव-ए-दुआ नहीं होता
लोग ज़ुल्मत से यूँ ही नालाँ हैं
रोज़-ए-रौशन में क्या नहीं होता
टूटे तारों को छू के देखा है
साज़-ए-दिल बे-सदा नहीं होता
हर ख़ुशी दिल से क्यूँ लगा बैठें
किस में ग़म हो पता नहीं होता
आओ मिल बैठ लो घड़ी-दो-घड़ी
उस घड़ी का पता नहीं होता
सर्द-मेहरी हमारी आदत है
वर्ना ज़र्रे में क्या नहीं होता
फिर वही शब वही तवील सफ़र
ख़त्म ये सिलसिला नहीं होता
ग़ज़ल
जब कोई रास्ता नहीं होता
अमर सिंह फ़िगार