EN اردو
जब कि ज़ुल्फ़ उस की गले खा बल पड़ी | शाही शायरी
jab ki zulf uski gale kha bal paDi

ग़ज़ल

जब कि ज़ुल्फ़ उस की गले खा बल पड़ी

मिर्ज़ा अज़फ़री

;

जब कि ज़ुल्फ़ उस की गले खा बल पड़ी
लश्कर-ए-उश्शाक में हलचल पड़ी

चितवनों नीचे किसे आँख आप की
तकती है पलकों के यूँ ओझल पड़ी

आह काली रात हिज्राँ की फँसी
करती है काकुल ही में कल कल पड़ी

कल जो मदह ओ ज़म थी साँच और झूट की
वो फबी हम पर ये तुम पर ढल पड़ी

शोला-ख़ूई सोच तेरी आज तक
पकती है छाती मिरी खल खल पड़ी

आह बस सीने में वो रुस्वा न कर
शम्अ-साँ फ़ानूस में अब जल पड़ी

दोस्ती उस ने जो मुझ से गर्म की
दुश्मनों को 'अज़फ़री' कुछ झल पड़ी