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जब कि मानूस था आलाम के गिर्दाब से भी | शाही शायरी
jab ki manus tha aalam ke girdab se bhi

ग़ज़ल

जब कि मानूस था आलाम के गिर्दाब से भी

मुस्तहसिन ख़्याल

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जब कि मानूस था आलाम के गिर्दाब से भी
मिल गया ज़हर-ए-तमस्ख़ुर कई अहबाब से भी

मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों का मुदावा न हुआ
ये शिकायत है तिरे शहर के आदाब से भी

अब उन्हें आँख की पुतली में छुपाना होगा
दाग़ जो धुल न सके चश्मा-ए-महताब से भी

कोई तो ज़ख़्म मिरा साज़-ए-तकल्लुम छेड़े
कोई तो बात चले दीदा-ए-पुर-आब से भी

चश्म-ए-बे-ख़्वाब के ख़्वाबों की जो ता'बीर बना
वही दिखला गया आँखों को कई ख़्वाब से भी

मेरा क्या ज़िक्र है गुलशन भी है मग़्मूम 'ख़याल'
हो गए आप ख़फ़ा गोशा-ए-शादाब से भी