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जब ख़ुद में कुछ मिला न ख़द-ओ-ख़ाल की तरह | शाही शायरी
jab KHud mein kuchh mila na KHad-o-Khaal ki tarah

ग़ज़ल

जब ख़ुद में कुछ मिला न ख़द-ओ-ख़ाल की तरह

मयंक अवस्थी

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जब ख़ुद में कुछ मिला न ख़द-ओ-ख़ाल की तरह
कुछ आइने में ढूँढ लिया बाल की तरह

सोई हुई है सुब्ह की तलवार जब तलक
ये शब है जुगनुओं के लिए ढाल की तरह

कुछ रौशनी के दाग़ उजाले का एक ज़ख़्म
कुछ तो है शब के दिल में ज़र-ओ-माल की तरह

तहरीर कर रही है मिरी पस्त तिश्नगी
झीलों को पानियों के बिछे जाल की तरह

नागिन है कोई बेल शजर बा-ख़बर नहीं
केंचुल चढ़ी हो तन पे अगर छाल की तरह

फिर भी तमाम दाग़ छुपाए न छुप सके
गो चाँदनी बदन पे रही शाल की तरह

बस आइने से एक मुलाक़ात के सबब
लम्हात हो गए हैं मह-ओ-साल की तरह

तुम झुक गए 'मयंक' ज़माने के सामने
फूलों से और फलों से लदी डाल की तरह