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जब ख़ेमा-ज़नो! ज़ोर हवाओं का घटेगा | शाही शायरी
jab KHema-zano! zor hawaon ka ghaTega

ग़ज़ल

जब ख़ेमा-ज़नो! ज़ोर हवाओं का घटेगा

कैफ़ी विजदानी

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जब ख़ेमा-ज़नो! ज़ोर हवाओं का घटेगा
ख़ूँ मेरी हथेली का तनाबों पे मलेगा

हो प्यास तो ख़ुद अपने ही होंटों का लहू चूस
सूखी हुई झीलों में तुझे कुछ न मिलेगा

जलते हुए रस्तों के लिए देख लिया कर
खिड़की न खुलेगी तो धुआँ और घुटेगा

बस्ती में ग़रीबों की जहाँ आग लगी थी
सुनते हैं वहाँ एक नया शहर बसेगा

पेड़ों की अगर नस्ल-कुशी ख़त्म नहीं की
कुछ दिन में यहाँ पेड़ों का साया भी बिकेगा

बस आग उबल सकती हैं ये मुर्दा ज़मीनें
बेकार सी कोशिश है यहाँ कुछ न उगेगा

वो मुर्दा-दिली शाम से पहले की अदा थी
इस वक़्त तो 'कैफ़ी' किसी मक़्तल में मिलेगा