जब ख़ेमा-ज़नो! ज़ोर हवाओं का घटेगा
ख़ूँ मेरी हथेली का तनाबों पे मलेगा
हो प्यास तो ख़ुद अपने ही होंटों का लहू चूस
सूखी हुई झीलों में तुझे कुछ न मिलेगा
जलते हुए रस्तों के लिए देख लिया कर
खिड़की न खुलेगी तो धुआँ और घुटेगा
बस्ती में ग़रीबों की जहाँ आग लगी थी
सुनते हैं वहाँ एक नया शहर बसेगा
पेड़ों की अगर नस्ल-कुशी ख़त्म नहीं की
कुछ दिन में यहाँ पेड़ों का साया भी बिकेगा
बस आग उबल सकती हैं ये मुर्दा ज़मीनें
बेकार सी कोशिश है यहाँ कुछ न उगेगा
वो मुर्दा-दिली शाम से पहले की अदा थी
इस वक़्त तो 'कैफ़ी' किसी मक़्तल में मिलेगा
ग़ज़ल
जब ख़ेमा-ज़नो! ज़ोर हवाओं का घटेगा
कैफ़ी विजदानी