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जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा | शाही शायरी
jab kaha tir teri aankh ne akasr mara

ग़ज़ल

जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा

मुज़्तर ख़ैराबादी

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जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा
चितवनें फेर के बोले कि बराबर मारा

क़द्र कुछ भी मिरे दिल की बुत-ए-काफ़िर ने न की
ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ से जो उलझा तो मिरे सर मारा

जान बे-मौत ख़ुदा भी नहीं लेता लेकिन
तू ने बे-मौत ही लोगों को सितमगर मारा

चंद ज़र्रे मेरी मिट्टी के फ़क़त हाथ आए
दश्त-ए-ग़ुर्बत के बगूलों ने जो चक्कर मारा

इक मुसलमान का दिल तोड़ दिया क्या कहना
अपने नज़दीक बड़ा आप ने काफ़र मारा

'मुज़्तर' ऐसा कोई अब तक न हो और न हो
मौत ने हाए अबस दाग़-ए-सुख़नवर मारा