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जब कभी शोर-ए-जहाँ होता है | शाही शायरी
jab kabhi shor-e-jahan hota hai

ग़ज़ल

जब कभी शोर-ए-जहाँ होता है

जमाल ओवैसी

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जब कभी शोर-ए-जहाँ होता है
मेरे होने का गुमाँ होता है

जब्र है मुझ पे निज़ाम-ए-फ़ितरत
मुझ पे हर लम्हा गिराँ होता है

सुबह होती नहीं पहले जैसी
शब-गिरफ़्तार समाँ होता है

धुँद में खोते हैं मंज़र सारे
पेच दर पेच धुआँ होता है

शाम ता-सुब्ह चराग़ाँ कर के
दश्त में नौहा-ए-जाँ होता है

वक़्त फैलाता है दामन अपना
आग का दरिया रवाँ होता है

मुझ को आज़ाद कर ऐ दानिश-ए-नौ
दिल गिरफ़्तार-ए-बुताँ होता है