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जब जज़्बा इक बार जिगर में आता है | शाही शायरी
jab jazba ek bar jigar mein aata hai

ग़ज़ल

जब जज़्बा इक बार जिगर में आता है

अमित शर्मा मीत

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जब जज़्बा इक बार जिगर में आता है
फिर सब अपने आप हुनर में आता है

सब की ज़द में इक मेरा ही घर है क्या
रोज़ नया इक पत्थर घर में आता है

कल मेरे साए में उस की शक्ल दिखी
मंज़र ऐसे पस-मंज़र में आता है

मैं तन्हा आता हूँ महफ़िल में यारों
बाक़ी हर इंसाँ लश्कर में आता है

लहजा उस का हर जानिब है मुसल्लत यूँ
वो बंदा हर बार ख़बर में आता है

दहशत उस लम्हे की दिल में इतनी है
अक्सर ही वो लम्हा डर में आता है

'मीत' सभी का साथ यहाँ पर देता है
जो कोई भी बीच सफ़र में आता है