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जब हुस्न-ए-बे-मिसाल पर इतना ग़ुरूर था | शाही शायरी
jab husn-e-be-misal par itna ghurur tha

ग़ज़ल

जब हुस्न-ए-बे-मिसाल पर इतना ग़ुरूर था

यगाना चंगेज़ी

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जब हुस्न-ए-बे-मिसाल पर इतना ग़ुरूर था
आईना देखना तुम्हें फिर क्या ज़रूर था

छुप-छुप के ग़ैर तक तुम्हें जाना ज़रूर था
था पीछे पीछे मैं भी मगर दूर दूर था

मुल्क-ए-अदम की राह थी मुश्किल से तय हुई
मंज़िल तक आते आते बदन चूर-चूर था

दो घूँट भी न पी सके और आँख खुल गई
फिर बज़्म-ए-ऐश थी न वो जाम-ए-सुरूर था

वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया
ये जाम-ए-मय था या कोई दरिया-ए-नूर था

क्यूँ बैठे हाथ मलते हो अब 'यास' क्या हुआ
इस बेवफ़ा शबाब पर इतना ग़ुरूर था