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जब हम हुदूद-ए-दैर-ओ-हरम से गुज़र गए | शाही शायरी
jab hum hudud-e-dair-o-haram se guzar gae

ग़ज़ल

जब हम हुदूद-ए-दैर-ओ-हरम से गुज़र गए

मोज फ़तेहगढ़ी

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जब हम हुदूद-ए-दैर-ओ-हरम से गुज़र गए
हर सम्त उन का जल्वा अयाँ था जिधर गए

इस तरह वो निगाह-ए-करम आज कर गए
दिल को सुरूर-ए-बादा-ए-उलफ़त से भर गए

वो हम को अपने दिल के ही अंदर निहाँ मिला
जिस की तलाश करते हुए दर-ब-दर गए

कुछ अहल-ए-ज़र्फ़ देखते हैं उस के नूर को
महरूम दीदियों को बहुत दीदा-वर गए

दिल ले गया हमें फिर उसी बेवफ़ा के पास
जाना नहीं था हम को जहाँ हम मगर गए

वो आ गए तो जल उठे उम्मीद के चराग़
वो हंस दिए तो बज़्म में मोती बिखर गए

आँखों में अश्क-ए-ग़म लिए हम वक़्त-ए-अल्विदा
नज़रों से उन के साथ ता-हद्द-ए-नज़र गए

देखा हमें तो गर्म-निगाही पिघल गई
मिज़्गाँ के तीर भौं की कमाँ से उतर गए

उन के मज़ीद वा'दों पे कैसे यक़ीन हो
अब तक जो वा'दा कर के बराबर मक्र गए

ये और और बात फिर गया पानी उम्मीद पर
हम उन की बज़्म में किसी उम्मीद पर गए

फिर उस को पुरशिश-ए-ग़म-ए-उल्फ़त से फ़ाएदा
घुट घुट के जिस के सीने में अरमान मर गए

ऐ 'मौज' मेरी कश्ती-ए-उल्फ़त वहीं रही
तूफ़ान मेरे चारों तरफ़ से गुज़र गए