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जब एक बार किसी इंतिहा पे जा ठहरे | शाही शायरी
jab ek bar kisi intiha pe ja Thahre

ग़ज़ल

जब एक बार किसी इंतिहा पे जा ठहरे

ख़ावर एजाज़

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जब एक बार किसी इंतिहा पे जा ठहरे
फिर उस के बा'द नज़र रास्तों में क्या ठहरे

सफ़र पे निकले थे जब ज़िंदगी गिरफ़्त में थी
मआल-ए-कार बस इक मौजा-ए-हवा ठहरे

अजब नहीं है कि बरसों के घुप अँधेरे में
दिया जलाएँ तो मंज़र ही दूसरा ठहरे

चमक उठे कभी आ कर मिरी हथेली पर
वही सितारा कभी आसमाँ पे जा ठहरे

मुफ़ाहमत की निकलती नहीं है राह कोई
जब अपने अपने उसूलों पे बात आ ठहरे

हम एक ऐसे दोराहे पे आ चुके हैं कि अब
क़दम बढ़ाए तो रस्ते जुदा जुदा ठहरे

मैं अपने साँस की गठरी उतार लूँ सर से
हयात-ए-तेज़-सफ़र से कहो ज़रा ठहरे