जब दिल में तेरी याद न आँखों में नींद थी
ऐसी भी एक रात मुझे काटनी पड़ी
जिस के बग़ैर पुल का गुज़रना मुहाल था
उस जान-ए-जाँ की याद भी मेहमान बन गई
पहलू में भी तिरे ग़म-ए-दौराँ का डर रहा
कार-ए-जहाँ ने यूँ मिरी मिट्टी ख़राब की
जिस के लिए ये ख़ाक-बसर उम्र भर रहा
उस ने दिल-ए-ग़रीब की कोई ख़बर न की
जीना नहीं था खेल मगर तेरे नाम पर
हम ने ये क़ैद-ए-सख़्त भी हँस कर गुज़ार दी
ग़ज़ल
जब दिल में तेरी याद न आँखों में नींद थी
लुत्फ़ुर्रहमान