जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था
जीने की आरज़ू थी मगर हौसला न था
आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था
अच्छा हुआ कि साथ किसी को लिया न था
दामान-ए-चाक चाक-गुलूँ को बहाना था
वर्ना निगाह-ओ-दिल में कोई फ़ासला न था
कुछ लोग शर्मसार ख़ुदा जाने क्यूँ हुए
उन से तो रूह-ए-अस्र हमें कुछ गिला न था
जलते रहे ख़याल बरसती रही घटा
हाँ नाज़-ए-आगही तुझे क्या कुछ रवा न था
सुनसान दोपहर है बड़ा जी उदास है
कहने को साथ साथ हमारे ज़माना था
हर आरज़ू का नाम नहीं आबरू-ए-जाँ
हर तिश्ना-लब जमाल-ए-रुख़-ए-कर्बला न था
आँधी में बर्ग-ए-गुल की ज़बाँ से 'अदा' हुआ
वो राज़ जो किसी से अभी तक कहा न था
ग़ज़ल
जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था
अदा जाफ़री