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जब चाहा ख़ुद को शाद या नाशाद कर लिया | शाही शायरी
jab chaha KHud ko shad ya nashad kar liya

ग़ज़ल

जब चाहा ख़ुद को शाद या नाशाद कर लिया

आफ़ताब इक़बाल शमीम

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जब चाहा ख़ुद को शाद या नाशाद कर लिया
अपने लिए फ़रेब सा ईजाद कर लिया

क्या सोचना कि शौक़ का अंजाम क्या हुआ
जब इख़्तियार पेशा-ए-फ़र्हाद कर लिया

ख़ुद से छुपा के ख़ुद को ज़माने के ख़ौफ़ से
हम ने तो अपने आप को बर्बाद कर लिया

था इश्क़ का हवाला नया हम ने इस लिए
मज़मून-ए-दिल को फिर से तब्अ'-ज़ाद कर लिया

यूँ भी पनाह-ए-साया कड़ी धूप में मिली
आँखें झुकाईँ और तुझे याद कर लिया

आया नया शुऊर नई उलझनों के साथ
समझे थे हम कि ज़ेहन को आज़ाद कर लिया

बस कि इमाम-ए-अस्र का फ़रमान था यही
मुँह हम ने सू-ए-क़िब्ला-ए-अज़्दाद कर लिया