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जब भी तुम को सोचा है | शाही शायरी
jab bhi tumko socha hai

ग़ज़ल

जब भी तुम को सोचा है

फ़ारूक़ नाज़की

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जब भी तुम को सोचा है
सारा मंज़र बदला है

जाते जाते ये किस ने
नाम पवन पर लिक्खा है

अँगारों के मौसम में
जिस्मों का सा मेला है

मेरी बस्ती में आ कर
पागल दरिया ठहरा है

ख़ुशियाँ हैं मेहमान मिरी
ग़म मेरा हम-साया है

तुम क्या जानो कश्मीरी
दिल्ली में क्या होता है