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जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए | शाही शायरी
jab bhi teri qurbat ke kuchh imkan nazar aae

ग़ज़ल

जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए

सादिक़ नसीम

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जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए
हम ख़ुश हुए इतने कि परेशाँ नज़र आए

देखूँ तो हर इक हुस्न में झलकें तिरे अंदाज़
सोचूँ तो फ़क़त गर्दिश-ए-दौराँ नज़र आए

टूटा जो फ़ुसून-ए-निगह-ए-शौक़ तो देखा
सहरा थे जो नश्शे में गुलिस्ताँ नज़र आए

काँटों के दिलों में भी वही ज़ख़्म थे लेकिन
फूलों ने सजाए तो नुमायाँ नज़र आए

इक अश्क भी नज़्र-ए-ग़म-ए-जानाँ को नहीं पास
हम आज बहुत बे-सर-ओ-सामाँ नज़र आए

जो राह-ए-तमन्ना के हर इक मोड़ पे चुप थे
जब दार पे पहुँचे तो ग़ज़ल-ख़्वाँ नज़र आए

क्या जानिए क्या हो गया अरबाब-ए-नज़र को
जिस शहर को देखें वही वीराँ नज़र आए

क्या रूप निगाहों में रचा बैठे कि इन को
गुलशन नज़र आए न बयाबाँ नज़र आए

इक उम्र से इस मोड़ पे बैठे हैं जहाँ पर
इक पल का गुज़रना भी न आसाँ नज़र आए

'सादिक़' की निगाहों को ही ठहराव न मुजरिम
आईने हर इक दौर में हैराँ नज़र आए