जब भी तक़दीर का हल्का सा इशारा होगा
आसमाँ पर कहीं मेरा भी सितारा होगा
दुश्मनी नींद से कर के हूँ पशेमानी में
किस तरह अब मिरे ख़्वाबों का गुज़ारा होगा
मुंतज़िर जिस के लिए हम हैं कई सदियों से
जाने किस दौर में वो शख़्स हमारा होगा
मैं ने पलकों को चमकते हुए देखा है अभी
आज आँखों में कोई ख़्वाब तुम्हारा होगा
दिल परस्तार नहीं अपना पुजारी भी नहीं
देवता कोई भला कैसे हमारा होगा
तेज़-रौ अपने क़दम हो गए पत्थर कैसे
कौन है किस ने मुझे ऐसे पुकारा होगा
ग़ज़ल
जब भी तक़दीर का हल्का सा इशारा होगा
आलोक श्रीवास्तव