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जब भी सलीब पर कोई ईसा दिखाई दे | शाही शायरी
jab bhi salib par koi isa dikhai de

ग़ज़ल

जब भी सलीब पर कोई ईसा दिखाई दे

शम्स फ़रीदी

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जब भी सलीब पर कोई ईसा दिखाई दे
सारी फ़ज़ा में नूर बिखरता दिखाई दे

इस चाँदनी की ज़द से बचा ले कोई मुझे
मेरा ही साया मुझ को डराता दिखाई दे

पोशीदा काएनात है इस सर-ज़मीन में
देखो इसे जो दूर से नुक़्ता दिखाई दे

इस शहर-ए-दर्द-ओ-दाग़ में किस किस को ढूँडिए
हर शख़्स अपने आप में छुपता दिखाई दे

ऐ 'शम्स' मुंतज़िर हूँ मैं साहिल पे शाम से
बादल हटे तो चाँद का मुखड़ा दिखाई दे