जब भी मिरे आँसू बहते हैं और तेरा दामन जलता है
देख के अपना हुस्न-ए-तअल्लुक़ हर अहल-ए-गुलशन जलता है
राज़ न पूछो मुस्तक़बिल का शेर-ओ-सुख़न की इस महफ़िल का
साहब-ए-फ़न ज़ुल्मत में पड़े हैं दूर चराग़-ए-फ़न जलता है
फ़स्ल-ए-बहाराँ आ जाने से कम न हुआ ग़म अहल-ए-चमन का
शबनम के आँसू बहते हैं गुल का पैराहन जलता है
जलने को तो सब जलते हैं आग जुदा है अपनी अपनी
हम जलते हैं तुम जलते हो इक इक अहल-ए-चमन चलता है
कोई नहीं ग़म-ख़्वार जहाँ में 'याद' हमारी तन्हाई का
अपने ही आँसू बहते हैं अपना ही दामन जलता है
ग़ज़ल
जब भी मिरे आँसू बहते हैं और तेरा दामन जलता है
शाहजहाँ बानो याद