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जब भी मैं रक़्स-कुनाँ कोई सितारा देखूँ | शाही शायरी
jab bhi main raqs-kunan koi sitara dekhun

ग़ज़ल

जब भी मैं रक़्स-कुनाँ कोई सितारा देखूँ

ज्योती आज़ाद खतरी

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जब भी मैं रक़्स-कुनाँ कोई सितारा देखूँ
इक जुनूँ अपनी इन आँखों में दोबारा देखूँ

जो न मुमकिन हो वही ख़्वाब दोबारा देखूँ
या'नी फिर पानी पे मैं अक्स तुम्हारा देखूँ

तेरी नज़रों में मोहब्बत है कोई सौदा मगर
मैं मोहब्बत में मुनाफ़े' न ख़सारा देखूँ

जब नहीं चलता मिरा बस मिरे अपने दिल पर
किस क़दर ख़ुद को कभी ख़ुद से ही हारा देखूँ

उस की रहमत का करिश्मा है भरोसा मेरा
मैं तो तूफ़ान में हर सम्त किनारा देखूँ

दिल की ख़्वाहिश है यही 'ज्योति' कि वहशत हो अगर
इस नज़ारे का फ़क़त मैं ही नज़ारा देखूँ