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जब भी भूले से कभी लब पे हँसी आई है | शाही शायरी
jab bhi bhule se kabhi lab pe hansi aai hai

ग़ज़ल

जब भी भूले से कभी लब पे हँसी आई है

सीमाब सुल्तानपुरी

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जब भी भूले से कभी लब पे हँसी आई है
ग़म की तस्वीर मिरे ज़ेहन पे लहराई है

इस क़दर चर्चा है कुछ आमद-ए-फ़स्ल-ए-गुल का
ख़ार को ख़ार न कहने ही में दानाई है

बन गई ख़ार सर-ए-शाख़ कली वो इक दिन
फूल बनने की तमन्ना में जो मुरझाई है

आँख ने देखा नहीं एक भी गुल ख़ंदा-ब-लब
सिर्फ़ कानों ने सुना है कि बहार आई है

दिन तो सायों के तआ'क़ुब में गुज़ारा लेकिन
फिर वही रात वही मैं वही तन्हाई है

जब था मैं गर्म-ए-सफ़र सायों से कतराता था
थक गया हूँ तो मुझे शो'लों पे नींद आई है

गो मैं बेगाना हूँ ख़ुद ज़ात से अपनी 'सीमाब'
मेरी फ़ितरत में मगर अंजुमन-आराई है