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जब अर्श पे दम तोड़ने लगती हैं दुआएँ | शाही शायरी
jab arsh pe dam toDne lagti hain duaen

ग़ज़ल

जब अर्श पे दम तोड़ने लगती हैं दुआएँ

शेर अफ़ज़ल जाफ़री

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जब अर्श पे दम तोड़ने लगती हैं दुआएँ
देता है रग-ए-जाँ से मुझे कोई सदाएँ

फिर सरमद-ओ-मंसूर का आता है ज़माना
अब अहल-ए-चमन गुल की जगह दार उगाएँ

उस तिश्ना की बरसात में क्या प्यास बुझेगी
कश्मीर के बर्फ़ाब जिसे आग लगाएँ

यूँ अपनी दुआ सुन के चहक उठ्ठे फ़रिश्ते
जिस तरह सुख़न-फ़हम कोई मिस्रा उठाएँ

अल्लाह-रे वो सरशार गुनहगार जो अपनी
बे-साख़्ता लग़्ज़िश पे ख़ुदा को भी रिझाएँ