जब अपने नग़्मे न अपनी ज़बाँ तक आए
तिरे हुज़ूर हम आ कर बहुत ही पछताए
ख़याल बन न सका नग़्मा गरचे हम ने उसे
हज़ार तरह के मलबूस-ए-लफ़्ज़ पहनाए
ये हुस्न-ओ-रंग का तूफ़ाँ है मआज़-अल्लाह
निगाह जम न सके और थक के रह गए
जो दर्द उठे भी तो इज़हार उस का हो क्यूँकर
हुज़ूर-ए-हुस्न अगर आवाज़ बैठ ही जाए
हटे नज़र से न फ़ुर्क़त की धूप में 'आज़ाद'
किसी की सुम्बुल-ए-शब रंग के घने साए
ग़ज़ल
जब अपने नग़्मे न अपनी ज़बाँ तक आए
जगन्नाथ आज़ाद