जब अपने ग़म का फ़साना उन्हें सुनाते हैं
ज़माना हँसता है हम पर वो मुस्कुराते हैं
मिरी निगाह से जब वो नज़र मिलाते हैं
दिल-ए-ग़रीब की दुनिया उजाड़ जाते हैं
हमारी आँखों ने हर इंक़लाब देखा है
ज़माना वाले हमें किस लिए डराते हैं
ये कैसा जश्न मनाते हैं गुलिस्ताँ वाले
गुलों को तोड़ते हैं आशियाँ जलाते हैं
ज़माने वाले समझते हैं हम को दीवाना
तुम्हारे हुस्न के जिस वक़्त गीत गाते हैं
तिरी निगाह में साक़ी ये कैसा जादू है
कि बे-पिए ही क़दम डगमगाए जाते हैं
जो तेरी बज़्म-ए-तरब में कभी गुज़ारे थे
वो लम्हे अब भी हमें रोज़ याद आते हैं
हमारे अश्कों की ताबिश पे है नज़र शायद
जभी तो शाम से तारे भी झिलमिलाते हैं
वो क्या बनाएँगे बिगड़ा नसीब ऐ 'कशफ़ी'
जो मेरे हाल-ए-परेशाँ पे मुस्कुराते हैं

ग़ज़ल
जब अपने ग़म का फ़साना उन्हें सुनाते हैं
कशफ़ी लखनवी