जब अपना साया ही दुश्मन है क्या किया जाए
यही तो ज़ेहन की उलझन है क्या किया जाए
हैं जिस के हाथ में ज़र्रे भी माह-ओ-अंजुम भी
उसी के हाथ में दामन है क्या किया जाए
उदास बाम पे मौसम ने खोल दीं ज़ुल्फ़ें
किसी बियोग में जोगन है क्या किया जाए
वो शाम-ए-लुत्फ़-ओ-तरब और चाँदनी सा बदन
इसी ख़ुमार में नागन है क्या किया जाए
वो अपनी शोख़ अदाओं से लूटता है मुझे
बहुत हसीन ये रहज़न है क्या किया जाए
वफ़ा-परस्त है आतिश-फ़िशाँ का रखवाला
सनम-कदे में बरहमन है क्या किया जाए
फ़रेब देता है 'आलम' पे राज करता है
अदू के हाथ में हर फ़न है क्या किया जाए
ग़ज़ल
जब अपना साया ही दुश्मन है क्या किया जाए
अफ़रोज़ आलम