EN اردو
जब अचानक मिरे पहलू से मिरा यार उठा | शाही शायरी
jab achanak mere pahlu se mera yar uTha

ग़ज़ल

जब अचानक मिरे पहलू से मिरा यार उठा

फ़रासत रिज़वी

;

जब अचानक मिरे पहलू से मिरा यार उठा
दर्द सीने में उठा और कई बार उठा

ज़िंदगी बोझ न बन जाए तन-आसानी से
अपने रस्ते में कभी ख़ुद कोई दीवार उठा

सरसर-ए-वक़्त से ग़ाफ़िल था तू ऐ किब्र-नज़ाद
गिर गई ख़ाक ज़मीं पर तिरी दस्तार उठा

वहम-ए-नज़ारा में है आफ़ियत-ए-दीदा-ओ-दिल
भूल कर भी न कभी पर्दा-ए-असरार उठा

जिस से हो जाएँ मिरे चाहने वाले तक़्सीम
ऐसी दीवार न कोई मिरे मे'मार उठा

ख़ौफ़-ए-तादीब से मज़लूमों पे रोया न गया
शाम-ए-मक़्तल में कोई भी न अज़ादार उठा

दूर तक फैला हुआ दश्त-ए-बला है बाहर
अपनी महफ़िल से न मुझ को मिरे दिलदार उठा

नाज़-बरदार-ए-हुनर हो गए रुख़्सत कब के
अब बिसात-ए-सुख़न-ओ-नग़्मा-ओ-अशआ'र उठा

सामने तेरे ज़र-अफ़्शाँ है नई सुब्ह-ए-उमीद
अपनी पलकों को ज़रा दीदा-ए-ख़ूँ-बार उठा

कल 'फ़रासत' था यहाँ मज्मा-ए-याराँ तिरे साथ
अब इसी शहर में तन्हाई के आज़ार उठा