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जब आफ़्ताब की आग इस ज़मीं को चाटेगी | शाही शायरी
jab aaftab ki aag is zamin ko chaTegi

ग़ज़ल

जब आफ़्ताब की आग इस ज़मीं को चाटेगी

शारिक़ जमाल

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जब आफ़्ताब की आग इस ज़मीं को चाटेगी
मकाँ की खोज में सड़कों पे भीड़ भागेगी

मैं देखता ही रहूँगा तिरे सरापा को
जब आँख सोएगी मेरी निगाह जागेगी

जो डस रही है अभी जागती निगाहों की
सवेरा होते ही वो रात ज़हर खाएगी

जो सोना चाहो तो दरवाज़े बंद कर लेना
खुला रहेगा ये कमरा तो धूप झाँकेगी

लबों पे नींद का ग़लबे अगर हुआ 'शारिक़'
यक़ीं है मेरे क़लम की ज़बान जागेगी